गुलिक

होरा ग्रन्थों में 9 उपग्रह बताये गये हैं, इनके नाम है- मान्दि, यमअंटक, अद्र्धप्रहार, काल, धूम, व्यतीपात, परिधि, इन्द्रधनु और उपकेतु। मंत्रेश्वर ने जिन्हें उपग्रह कहा है, पाराशर उन्हें अप्रकाश ग्रह की संज्ञा प्रदान करते हैं।
इनमें से मान्दि को शनि से सम्बन्धित बताया गया है। इसी को गुलिक भी कहा गया है। शनि का एक नाम मंद भी है, इसीलिए शनि के इस अंश को मान्दि कहा गया है।
मान्दि सहित सभी 9 उपग्रह गणतीय बिन्दु हैं और इनका भौतिक अस्तित्व नहीं है। उपग्रहों की सामान्य धारणा जैसे नहीं हैं क्योंकि ये गणना के माध्यम से ही ज्ञात किए जाते हैं और इनकी अवधि ज्ञात की जाती है।
यदि एक दिन-रात को 60 घटी का मानें और दिनमान यदि 30 घटी का हो तो रविवार को सूर्योदय के 26 घटी बाद मान्दि होगा, सोमवार को 22 घटी बाद, मंगलवार को 18 घटी बाद, बुधवार को 14 घटी बाद, बृहस्पतिवार को सूर्योदय से 10 घटी बाद, शुक्रवार को सूर्योदय से 6 घटी बाद और शनिवार को सूर्योदय से 2 घटी बाद मान्दि का काल होता है। यदि दिनमान की अवधि में अंतर आए तो उपग्रहों की गणना अवधि थोड़ी बहुत परिवर्तित करनी पड़ती है।
दिनमान के 8 भाग करने पर 7 भागों को तो ग्रहों से सम्बन्धित माना जाता है। आठवें भाव का कोई स्वामी नहीं होता। शनि का जो भाग है, उसे ही मान्दि या गलिक का भाग माना जाता है। रविवार को यदि हम गणना करें तो प्रथम भाग सूर्य का, दूसरा चन्द्रमा का, तीसरा मंगल का, चौथा बुध का, पाँचवा बृहस्पति का, छठा शुक्र का और सातवाँ भाग शनि का होता है। आठवाँ भाग किसी का नहीं होता। सातवाँ भाग जिस क्षण समाप्त होता है, उसे मान्दि स्पष्ट कहेंगे।
रात की गणना विधि कुछ अलग है। वार स्वामी के पाँचवें भाव से गणना प्रारम्भ करते हैं। उपरोक्त उदाहरण में रविवार की रात्रि के आठ भाग करें तो पाँचवाँ भाग बृहस्पति का हुआ। बृहस्पति से शनि का भाग तीसरा पड़ा। तीसरा भाग जहाँ समाप्त होता है, उस समय जो लग्न स्पष्ट होता है, उसी को हम मान्दि स्पष्ट कहेंगे।
मान्दि या गुलिक के फल –
मान्दि को तीसरे, छठे, दसवें और ग्याहरवें भाव में ही शुभ माना गया है, बाकि भावों में अशुभ माना गया है। लग्न में गुलिक रोग और काम को बढ़ाते हैं और क्रूर, दुष्ट, उदण्ड और रोगी बनाते हैं। नैत्र विकार भी होता है। सन्तान कम होती है, भोजन अधिक करता है, शास्त्रों में रूचि नहीं रहती और महाक्रोधी होता है।
दूसरे भाव का गुलिक, कटु वचन कहने वाला, निर्लज, कलह करने वाला, अभावग्रस्त और व्यसनों में व्यस्त रहने वाला होता है। तीसरे भाव का गुलिक सौन्दर्य प्रदाता है, सम्पति प्रदाता है और राजमान्य हो जाता है। परन्तु फलदीपिका ग्रन्थ के अनुसार ऐसा व्यक्ति क्रोधी और लोभी होता है तथा अहंकार ग्रस्त होता है। सम्पन्न भी हो जाता है।
चौथे भाव में गुलिक रोग, दु:ख, पाप को बढ़ाने वाले, पित्त व वात को देने वाला होता है। उसके सुख साधनों में कमी आ जाती है और बन्धु – बांधव प्रसन्न नहीं रहते।
पाँचवें भाव के गुलिक बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करता है, दूसरों की निन्दा करता है, निर्धन होता है, धार्मिक आस्थाएँ नहीं होती और स्त्री प्रसंग की कमी रहती है। उसकी आयु भी कम होती है।
छठे भाव का गुलिक व्यक्ति को अभिचार कर्म में रत, पराक्रमी, श्रेष्ठ संतान वाला, स्तर स्वभाव वाला और स्त्री को प्रिय बनाता है।
सातवें स्थान का गुलिक कलहकारक, कलह करने वाला, सबसे ईष्र्या करने वाला, पापरत, कम मित्रों वाला और स्त्रियों के वश में रहने वाला बनाता है। आठवें भाव का गुलिक व्यक्ति को अभावग्रस्त, दु:खी, क्रूर, निर्धन, छोटे शरीर वाला और गुणों से हीन बनाता है।
नवें घर का गुलिक कष्ट प्रदान करता है। गुरु, पिता आदि से हीन होता है और बुरे कर्मों में रत रहता है। कठोर और निर्दयी हो जाता है। दसवें भाव का गुलिक मंत्रेश्वर के अनुसार तो शुभ कर्मों का त्याग कर देने वाला होता है और दानशील नहीं होता। परन्तु पाराशर दसवें गुलिक की प्रशंसा करते हैं। पाराशर उसे योग और धर्म का पालन करने वाला और सन्तानवान बताते हैं।
ग्यारहवें भाव का गुलिक व्यक्ति को सुखी, पुत्रवान, स्त्रीवान, प्रजा का अध्यक्ष, उपकार करने वाला, छोटे कद वाला और सर्वत्र पुज्य बनाता है। बारहवें भाव का गुलिक नीच कर्म करने वाला, पापी, अंगहीन, भाग्यहीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति खर्चा भी बहुत करता है।
मंत्रेश्वर ने ग्रहों के साथ युति को शुभ नहीं बताया है। यदि गुलिक सूर्य के साथ स्थित हों तो पिता की आयु का हरण करता है। चन्द्रमा के साथ स्थित हों तो माता के सुखों में कमी करता है, मंगल के साथ गुलिक युति करें तो भाई से सम्बन्धित कष्ट होता है, यदि बुध के साथ युति हो तो उन्माद या पागलपन मिलता है, बुहस्पति के साथ गुलिक पाखण्डी बनाता है, विद्या का झूठा दंभ करता है, शुक्र के साथ गुलिक होने पर जातक अभोग्य स्त्रियों का संग करता है और शनि के साथ गलिक होने पर आयु कम होती है और तरह-तरह के रोग होते हैं। राहु के साथ गुलिक स्थित हों तो विष रोगी हो। आजकल बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले रोगों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि गुलिक केतु के साथ स्थित हो तो जातक को अग्नि से कष्ट हो।
गुलिक के लिए कुछ घटियाँ त्याज्य बताई गई हैं। यदि विषघटी काल में गुलिक स्थित हों तो वह व्यक्ति निर्धन होता चला जाता है।
गुलिक छठे और ग्यारहवें भाव को तो शुभ फल प्रदान करते हैं, बाकि भावों को शुभ फल प्रदान करते हैं। गुलिक का प्रभाव शनि जैसा ही होता है, परन्तु यह शनि का अशुभ भाग है।
गुलिक जिस राशि में हो उससे त्रिकोण में जन्म लग्न या जन्म राशि होना संभव है। मान्दि या गुलिक जिस नवांश हों उसका सम्बन्ध भी चन्द्र लग्न या जन्म लग्न से हो सकता है।
पाराशर का कहना है कि यदि किसी भाव का फल शुभ हो तथा उस भाव का फल उपग्रह के कारण भी शुभ हो तो वह अति शुभ फल प्रदाता हो जाता है। दूसरी स्थिति यह है जब भाव फल तो शुभ हो परन्तु उपग्रह फल या गुलिक फल अशुभ हो तो मध्यम फल मिलते हैं और यदि दोनों ही तरफ से अशुभ फल आवें तो महाअशुभ फल प्राप्त होता है।

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