गुरु पूर्णिमा – व्यास पूर्णिमा

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो मेहश्वरः।
गुरुः साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरुपूर्णिमा अर्थात् सद्गुरु के पूजन का पर्व। गुरु की पूजा-गुरु का आदर किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है, व्यक्ति का आदर नहीं है अपितु गुरु के देह के अंदर जो विदेही आत्मा है-परब्रह्मा परमात्मा है उसका आदर है, ज्ञान का आदर है, ज्ञान का पूजन है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। वशिष्ठजी महाराज के पौत्र पराशर ऋषि के पुत्र वेदव्यासजी जन्म के कुछ समय बाद ही अपनी मां से कहने लगे- ‘अब हम जाते हैं तपस्या के लिए’। मां बोली- ‘बेटा! पुत्र तो माता-पिता की सेवा के लिए होता है। माता-पिता के अधूरे कार्य को पूर्ण करने के लिए होता है और तुम अभी से जा रहे हो?’ व्यासजी ने कहा- ‘मां! जब तुम याद करोगी और जरूरी काम होगा, तब मैं तुम्हारे आगे प्रकट हो जाऊंगा।’ मां से आज्ञा लेकर व्यासजी तप के लिए चल दिए। वे बदरिकाश्रम गए। वहां एकांत में समाधि लगाकर रहने लगे।

बदरिकाश्रम में बेर पर जीवन-यापन करने के कारण उनका नाम ‘बादरायण’ भी पड़ा। व्यास जी द्वीप में प्रकट हुए इसलिए उनका नाम ‘द्वैपायन’ पड़ा। कृष्ण (काले) रंग के थे इसलिए उन्हें ‘कृष्णद्वैपायन’ भी कहते हैं। उन्होंने वेदों का विस्तार किया, इसलिए उनका नाम ‘वेदव्यास’ भी पड़ा। ज्ञान के असीम सागर, भक्ति के आचार्य, विद्वत्ता की पराकाष्ठा और अथाह कवित्व शक्ति- इनसे बड़ा कोई कवि मिलना मुश्किल है। भगवान वेदव्यास के नाम से आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का नाम ‘व्यास पूर्णिमा’ पड़ा है।

यह सबसे बड़ी पूर्णिमा मानी जाती है, क्योंकि परमात्मा के ज्ञान, परमात्मा के ध्यान और परमात्मा की प्रीति की तरफ ले जाने वाली है यह पूर्णिमा। इसको ‘गुरुपूर्णिमा’ भी कहते हैं। जब तक मनुष्य को सत्य के ज्ञान की प्यास रहेगी, तब तक ऐसे व्यास पुरुषों का, ब्रह्मज्ञानियों का आदर-पूजन होता रहेगा।

व्यासजी ने वेदों के विभाग किए। ‘ब्रह्मसूत्र’ व्यासजी ने ही बनाया। पांचवां वेद ‘महाभारत’ व्यासजी ने बनाया, भक्ति-ग्रंथ भागवतपुराण भी व्यासजी की रचना है एवं अन्य 17 पुराणों का प्रतिपादन भी भगवान वेदव्यासजी ने ही किया है। विश्व में जितने भी धर्मग्रंथ हैं, फिर वे चाहे किसी भी धर्म-पंथ के हों, उनमें अगर कोई सात्ति्वक और कल्याणकारी बाते हैं तो सीधे-अनसीधे भगवान वेदव्यासजी के शास्त्रों से ली गई हैं। इसीलिए ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ कहा गया है। व्यासजी ने पूरी मानव-जाति को सच्चे कल्याण का खुला रास्ता बताया दिया है। वेदव्यासजी की कृपा सभी साधकों के चित्त में चिरस्थायी रहे। जिन-जिन के अंतःकरण में ऐसे व्यासजी का ज्ञान, उनकी अनुभूति और निष्ठा उभरी, ऐसे पुरुष अभी भी ऊंचे आसन पर बैठते हैं तो कहा जाता है कि भावगत कथा में अमुक महाराज व्यासपीठ पर विराजेंगे।

व्यासजी के शास्त्र-श्रवण के बिना भारत तो क्या विश्व में भी कोई आध्यात्मिक उपदेशक नहीं बन सकता- व्यासजी का ऐसा अगाध ज्ञान है। व्यास पूर्णिमा का पर्व वर्ष भर की पूर्णिमा मनाने के पुण्य का फल तो देता ही है, साथ ही नई दिशा, नया संकेत भी देता है और कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है। जिन महापुरुषों ने कठोर परिश्रम करके हमारे लिए सब कुछ किया, उन महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर – ऋषिऋण चुकाने का अवसर, ऋषियों की प्रेरणा और आशीर्वाद पाने का यही अवसर है- व्यास पूर्णिमा। यह पर्व गुरु पूर्णिमा भी कहलाता है। भगवान श्रीराम भी गुरुद्वार पर जाते थे और माता-पिता तथा गुरुदेव के चरणों में विनयपूर्वक नमन करते थे-

प्रातःकाल उठि कै रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा॥
गुरुजनों, श्रेष्ठजनों एवं अपने से बड़ों के प्रति अगाध श्रद्धा का यह पर्व भारतीय सनातन संस्कृति का विशिष्ट पर्व है।
इस प्रकार कृतज्ञता व्यक्त करने का और तप, व्रत, साधना में आगे बढ़ने का भी यह त्योहार है। संयम, सहजता, शांति और माधुर्य तथा जीते-जी मधुर जीवन की दिशा बनाने वाली पूर्णिमा है- गुरुपूर्णिमा। ईश्वर प्राप्ति की सहज, साध्य, साफ-सुथरी दिशा बताने वाला त्योहार है- गुरुपूर्णिमा। यह आस्था का पर्व है, श्रद्धा का पर्व है, समर्पण का पर्व है।

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