क्यों शापित है भानगढ का किला।

25 दिसम्बर, 2016 को मेरे साथ इन्टरनेशनल वास्तु एकेडमी से जुड़े वास्तु विशेषज्ञ तथा वर्तमान व पिछले विद्यार्थी एक बस में भरकर सुबह 11 बजे जयपुर से 80 किमी. दूर स्थित भानगढ़ गाँव पहुँचे। यहाँ पहुँचने का उद्देश्य भानगढ़ के उजड़े व भारत के सबसे अधिक प्रसिद्ध शापित किले के रूप में उन खण्डहरों को देखना है जहाँ कभी अपार रौनक हुआ करती थी तथा जन किंवदंतियों के अनुसार अब यहाँ भूतप्रेत या जिन्नों का वास है जो कि रात्रि में अपना परिचय देते हैं। दिन में कोई खतरा नहीं है परन्तु वहाँ रात्रि विश्राम को लेकर भय व्याप्त है। इतना कि भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने भी वहाँ यह लिखित सूचना लगा रखी है।

किले की त्रिस्थरीय सुरक्षा व्यवस्था के तहत प्रथम प्रवेश द्वार में प्रवेश करते ही मीना बाजार जैसा जौहरी बाजार खण्डहर के रूप में दिखता है। सड़क के दोनों और बनी हुई दुकानों का स्वरूप ही बदल गया है। छत तो गिर ही चुकी हैं और दीवारें आदम कद ऊँचाई की उपलब्ध हैं। स्थानीय पत्थर और करौली के पत्थर का भरपूर प्रयोग हुआ है। यह जौहरी बाजार ऐसा ही है जैसा कि दिल्ली के लाल किले में स्थित मीना बाजार। सम्भवत: किले की आन्तरिक व्यवस्थाओं में बाजार आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तत्कालीन शासकों ने जौहरी बाजार का निर्माण करवाया होगा। जिस सिन्धु सेवड़ा (मृत देह से आत्माओं को सिद्ध व काबू कर लेने वाला) की कथा यहाँ जनमानस में व्याप्त है वह इसी स्थान पर तत्कालीन राजकुमारी रत्नावती को यहीं पर मिला था। वह राजकुमारी पर मोहित था और वशीकरण के उद्देश्य से उसने राजकुमारी के साथ आई हुई दासी के हाथ में क्रय की गई इत्र की शीशी पर काले जादू का प्रयोग किया। बाद में राजकुमारी को भ्रम हुआ तो उसने वह इत्र या तेल एक शिलाखण्ड पर उड़ेल दिया। तत्क्षण ही वह शिला उड़ कर वापस सिन्धु सेवड़ा के पास चली गया और उसे कुचल दिया। मरने से पूर्व उसने शाप दिया कि यह किला, इसमें रहने वाले सभी लोग और राजकुमारी सब कुछ उजड़ जाएगा।

यह हुआ, परन्तु वास्तु एकेडमी के विशेषज्ञ इस लोक कथाओं में न जाकर किले के वास्तु सौन्दर्य का परीक्षण करने की दृष्टि से वहाँ पहुँचे थे। दो वर्ष पूर्व जब मेरे शिष्यों के साथ मैं इस स्थान पर आया था और उस समय दिशा ज्ञान व वास्तु परीक्षण करते समय मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आमेर से जुड़े महाराजाओं के शासन में वास्तु सम्बन्धी गम्भीर उल्लंघन कैसे सम्भव है। परन्तु यह हुआ और अपनी प्रारम्भिक परिकल्पाओं को ठोस जमीन देने के लिए गत 25 दिसम्बर, 2016 को मैं अपने सभी शिष्यों के साथ वहाँ गया। वास्तु सम्बन्धी गम्भीर दोष यहाँ उपलब्ध थे और उन्हीं की पुष्टि के लिए मैंने यह भ्रमण व्यवस्था की थी।

अस्तु, जौहरी बाजार से निकलते ही हम लोग सुरक्षा व्यवस्था की दूसरी प्राचीर दीवार पर पहुँचे और द्वार प्रवेश किया। प्रवेश करते ही दाहिनीं और एक मंदिर था। कुल मिलाकर 4 मंदिर यहाँ है, एक को छोड़कर किसी में भी मूर्ति नहीं है। तीन ओर पहाडिय़ों से घिरे प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर इस किले को देखकर अभिभूत विद्यार्थियों के मन में गहन जिज्ञासा थी और उन सब के मन में अनेकों प्रश्र उचित उत्तर पाने को आतुर थे। मुझे न केवल किले के इतिहास का ज्ञान था, बल्कि वास्तु शास्त्र के साथ किये गये भयानक मजाक का भी ज्ञान था। मुझ से श्रेष्ठ गाइड उस समय कोई हो भी नहीं सकता था। प्रामाणिक जानकारी अगर इतिहास के धरातल से दी जाए तो वास्तु की प्रामाणिक जानकारी भी उस रहस्य का अनावरण करने वाला था, जो पर्यटकों को यहाँ खींच लाती है।

किले के भ्रमण से जो निष्कर्ष निकले, उन्हें मैं यहाँ लिख रहा हूँ।
1. दक्षिण-पश्चिम और उत्तर में पहाडिय़ाँ है और पूर्व दिशा काफी खाली पड़ी है। पश्चिम की पहाड़ी पर किला बना है। यह एक गलत निर्णय था। दक्षिण की पहाड़ी और पश्चिम की पहाड़ी से बनने वाले नैऋत्य कोण में एक घाटी जैसी है, जहाँ से पानी की जलधारा निकल कर आती है और नैऋत्य कोण में स्थित एक जलकुण्ड में पानी एकत्रित होता है। एक एक बहुत बड़ा वास्तु दोष है क्योंकि इसके कारण दक्षिण से लेकर दक्षिण-पश्चिम तक किला निर्माण नहीं हो पाया।
2. किले के महेन्द्र द्वार की रचना दूषित है क्योंकि यह महेन्द्र द्वार महल या किले का ना होकर सबसे बाहर की प्राचीर पर सृजित किया जाना चाहिए था। यह शानदार प्रयोग आमेर के महलों में किया गया है। इतिहास ने सिद्ध किया कि आमेर के शासक सदा प्रभावशाली रहे।
3. किले की पीठ (Plinth) का क्षेत्रफल कम रखा गया। जिसके कारण महेन्द्र द्वार में प्रवेश से तुरन्त पूर्व खड़ी चढ़ाई वाला रेम्प है। इस रेम्प पर हाथी-घोड़े या पालकी का चढऩा बहुत ही कठिन कार्य था। द्वार प्रवेश से पूर्व ही मन में निराशा या नकारात्मक वृत्ति उत्पन्न हो जाने वाली रचना है यह। अगर पीठ का अग्निकोण वाला हिस्सा 20 फीट दक्षिण की ओर बढ़ा दिया जाता अर्थात् उत्तर से दक्षिण की ओर पीठ की चौड़ाई कुल मिलाकर 40 फीट भी बढ़ा दी जाती तो किले का वह हश्र नहीं होता जो आज हम देख रहे हैं।
4. महेन्द्र द्वार में प्रवेश से पूर्व सीढिय़ों की परस्पर ऊँचाई में बड़ी विषमता है।
5. किले में अन्दर प्रवेश पाने पर नैऋत्य कोण में जिन्न का मंदिर है और उससे लगे कमरे में नैऋत्य कोण में ही द्वार है। वास्तु ग्रन्थों मेंं मिलता है कि नैऋत्य कोण में सूई के बराबर भी छिद्र हो जाए तो मकान में राक्षस और पिशाच घुस जाते हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जो लोक कथाओं की आधार पृष्ठभूमि बनाते हैं। वास्तु एकेडमी इस बात का समर्थन करती है कि यहाँ जिन्न या प्रेतों का होना सम्भव है। ज्योतिष को मानने वाले लोग प्रेतों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जो भी पुनर्जन्म या कर्म सिद्धान्त में आस्था रखता है वह प्रेत व श्राद्ध व्यवस्था में भी विश्वास करता है।
6. उत्तर दिशा में पहाड़ हैं, जो कि किसी भी किले की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर सकते हंै। कुबेर का या सोम तत्त्व का आगमन उत्तर दिशा से ही होता है। उत्तर दिशा में पहाड़ होना, इस तथ्य की पुष्टि करता है कि यहाँ के शासक सदा अभाव ग्रस्त रहे होंगे और उनके खजाने सदा खाली रहे होंगे। उत्तर दिशा में भारी निर्माण राजवंश या साधारण घरों के मामलों में कुल का नाश करा देते हैं। औरंगजेब के शासन काल में भानगढ़ के तत्कालीन शासक छत्रसिंह के दो पुत्रों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। नाराज होकर आमेर के शासकों ने उन्हें मरवा दिया था और जागीर जब्त कर ली थी।
7. दक्षिण से नैऋत्य के बीच में मंदिर का निर्माण उचित नहीं है। देवताओं का वास ईशान कोण में रखना चाहिए, न कि राक्षसों के स्थान पर। इससे राज्य श्रीहीन हो गया होगा।

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